सोमवार, 8 सितंबर 2008

ऐसा क्यों होता है?

जिन्दगी को जीने का अपना -अपना तरीका है,
हर कोई अपनी ज़िन्दगी को अपने ख्यालों के हिसाब से
सजाता है/ रंग भरता है।
कुछ लोग ज़िन्दगी को हवाले कर देते हैं आंसुओं के,
और कोई दूसरों के लिए अपनी खुशियों को निसार कर देते है,
औरखिलाते रहते हैं उनके होठों पर मुस्कान,
कुछ लोग जीते हैं सिर्फ़ अपने लिए, भूल कर सारी दुनिया की रंगीनियों को,
अपनी धुन में मगन , अपने रास्ते चलते -चलते ,
निकल जाते हैं अपनों से / अपने बिगत से बहुत दूर,
मगर जीने की कला तो सिर्फ़ वोही जनता है जो दूसरों के लिए जीता है।
तभी तो हर कोई देता है पतंगे की उपमा, जो दे देता है हँसते - हँसते
दीपक की लौ पर अपनी जान।
ज़िन्दगी के कुछ पन्ने फिर भी रह जाते हैं खाली, सफर ख़त्म होने के बाद भी,
और वोह पन्ने हमेशा सालते रहते हैं ज़िन्दगी को ,
गाहे - बागाहे ख्यालों में आकर,
क्यों रह जाते हैं ये कुछ पन्ने खाली, इतनी लम्बी ज़िन्दगी के बाबजूद
क्यों नहीं मिल पता कोई रंग इनके कोरेपण को रंगीन बनाने के लिए,
क्यों नहीं बनते अक्षर, शब्द इन पन्नो की लाइनों पर,
क्यों होता है ऐसा इस ज़िन्दगी में?