गुरुवार, 14 अगस्त 2008

कुछ पल यादों के साथ - १ ( कविता -1)

---------- कविता ------------



मुझे नहीं पता उसका नाम क्या था। अजीत ने बताया की उसका नाम कविता है। अजीत मेरा क्लासमेट था । हम साथ - साथ एक रूम में रहते थे। तीसरा विनोद था जो हमारा रूम पार्टनर था। कविता का घर हमारे कमरे से सड़क पार साइड में था। जब भी हम अपने कमरे की बौंदरी वाल से सैट कर खड़े होते तो उसकी बौंदरी में जो भी होता वोह दिखाई देता था। पहली बार मैंने उसे उसकी बौन्द्री के अन्दर पौधों को पानी लगाते देखा था । सच पूछो तो वोह बहुत ही सुंदर थी जिसे देखकर कोई भी पहली नज़र में उसका दीवाना हो सकता था। उसकी सुन्दरता की तारीफ कम से कम मैं तो नहीं कर सकता। सुन्दरता के साथ उसके चेहरे से झलकने वाली मासूमियत किसी के भी मन को मोहने के लिए काफी थी। मैं भी उसकी उसी मासूमियत का कायल हो गया । उस समय मैं पोल्य्तेक्निक डिप्लोमा के प्रथम वर्ष में था और लखनऊ के इंदिरानगर कोलोनी के सेक्टर १६ में डबल स्टोरी में अजीत और विनोद के साथ किराये पर रहता था। घर से दूर पढ़ाई करने के लिए निकला था।समय ठीक - ठाक गुज़र रहा था की तभी कविता से हो गयी। उस दिन हम लोग खाना खाने के बाद टहलने निकले थे और वो भी अपने गेट पर खड़ी थी। उसे देखते ही मेरे दिल की घंटी जोर - जोर से बजने लगी मगर मैंने अपनी उत्कंठा अपने साथियों पर ज़ाहिर नहीं होने दी। उसे देख कर किसी के भी दिल में प्यार की लहरें हिलोरें मार सकती थी। वो थी ही इतनी सुंदर । उसकी सुन्दरता को शब्दों में बयां करना उसकी सुन्दरता का अपमान करने के बराबर था। उस दिन केबाद मैं उसके दर्शन को बेजार रहने लगा। जब भी वो अपनी छत या आँगन में दिखाई देती मैं उसे बार-बार देखने का अपना मोह त्याग नहीं पाटा और किसी न किसी बहाने से कमरे से निकल उसका deedar कर अपने दिल में uthti umangon की aag पर पानी के chheente dalta रहता। धीरे -धीरे शायद उसको भी ये ahsaas हो गया की मैं उसे देख ने के लिए ही बार - बार अपने आँगन men tahalta रहता हूँ। अब voh भी नज़र bachaa कर मुझे taakne लगी। जब मैंने कई बार उसे अपनी or takte देखा to मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। woh मेरी तरफ़ क्यों dekhti थी मुझे नही pataa था बस मुझे लगा की woh भी mejhe chaahne लगी है और उसे भी मेरी तरफ़ देखने के लिए bahana chaahiye। इसके बाद मेरी duniya बदलने लगी मैं हमेशा उसके khwabon men खोया - खोया रहने लगा। उसके घर से निकलने का intjaar करने lagaa। । इसी बीच कब मेरे exam शुरू हो गए मुझे pataa नहीं चला । मैं kitab की जगह उसका चेहरा पढने की koshishon men lagaa rahaa। drawing करने की जगह उसका उसकी tasweer banata रहा परिणाम, मई प्रथम warsh me fail हो गया । माँ - बाप की mehnat की kamai को jaya करता rahaa।
mer साथ मेरे दोनों साथी भी fail हो गए, क्यों ये मुझे पता नहीं। अगले वर्ष मेरे दोनों साथियों ने lucknow me रहने की jahmat नहीं uthai परन्तु मैं wahin रहता रहा। कविता के घर के सामने। मगर अब तक उसके मुख से कोई शब्द नहीं सुन सका । एक दिन मैं अपने दोस्त firoz के साथ kamre पर bake bahar baitha था तभी उसका गेट खुलने की आवाज़ आयी , मैंने देखा की woh अपनी साइकिल nikaal कर kahin जाने की taiyari men थी । मैंने firoz को बताया to woh साथ jane को taiyar हो गया। हम साइकिल से उसका peechha करने लगे। उसके घर से दूर निकलने के बाद हम उसके baraabar men साइकिल ले गए । मैं साइकिल चला raha था और मेरा दिल भी joron से dhadak रहा था। अतः शुरुआत firoz ने की। woh bola- कविता जी ये मेरा दोस्त है। ये aapse बहुत प्यार करता है। आपके घर के सामने ही रहता है आपने देखा ही होगा। आप इससे दोस्ती करेंगी क्या? मगर उसने कोई jaqbab नहीं दिया । हाँ! उसने cyclkwe की speed ज़रूर badhadi। और इससे pahle हम कुछ समझ paate woh jhat से एक गली men mudkar एक घर men घुस गयी। हम अपना sa muhn लेकर लौट आए। SHAAM को WOH जब दिखायी दी TO MUSKRA रही थी। मैंने SOCHA शायद WOH मुझे तंग करने के लिए ये सब कर रही थी. Kavita par kavita karna koi khel nahin tha ye mere carreer ka sabse bada roda ban sakti thi.

सोमवार, 4 अगस्त 2008

सावन के jhoole

आम की ऊंची - ऊंची शाखों पर,
जब बाँधी जाती थी घास की , हाथ से बाटी हरी - हरी रस्सी,
नीचे दोनों सिरों को जोड़ कर बांधा जाता था एक नीम का,
मोटा सा डंडा या राखी जाती थी एक लकड़ी की पटली,
जिसके दोनों सिरों पर बनाया जाता वी का निशान, रस्सी में फ़साने के लिए,
और peng badhate लड़कियों और बच्चों के jhund,
asmaan को छूने की चाहत में thame हुए jhoole की रस्सी,
ooper asman से jhimir -jhimir करती, बालों को bhigoti ,
chhoti - chhoti boonden,
हवा में tairte korars गान, सावन को फ़िर से आने की dawat देते हुए,
menhdi से लाल hatheliyon पर sametti , dhalte sooraj की lalima,
समय angdaii लेते हुए पहुँच गया ikkeesveen सदी में और ,
समेत ले गया अपने साथ , आम की bagiyon के साथ , ऊंची -ऊंची shakhen ,
lahrate - balkhate joolon की uchaiyon को , menhdi की mahak अब band हो गयी polythin के पैकेट में ,
isiliye शायद अब नहीं thaharti किसी hatheli पर sooraj की lalima ,
न ही jhimir - jhimir करते हैं सावन के मद bhare megh ,
ऊंचे - ऊंचे peng शर्मा कर जाने कहाँ chhup गए ,
अब नहीं goonjte हैं सावन के koras मंद -मंद बहती hawaon के aanchal में
आह! कहाँ गए वो दिन जब सावन के jhoole दिल के karib से gujarte हुए चाँद छू कर ,
baadlon से बातें करके, अपने priyatam की ख़बर लाने की minnaten करती ,
aanchal में शर्म से duhari होती taruni , अपने लाल हुए gulabi chehre को aanchal में छुपा कर haule से muskura देती थी।